आधुनिक दौर के इस युग में बच्चों का शोषण एक गंभीर रूप ले चुका है। देश के कुल 14 करोड़ कामकाजी बच्चों में से लगभग आधे, बंधुआ मज़दूर क रूप में काम करते हैं।
विश्व में बच्चों पर होते इस दुर्व्यवहार ने मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर विदिशा के निवासी कैलाश सत्यार्थी को इस क़दर झकझोर दिया की उन्होंने उसी समय निश्चय कर लिया की वे संसार के अनाथ और बेसहारा बच्चों के विकास में ही अपना जीवन समर्पित कर देंगे। अपने इस जूनून को पूरा करने में इन्होंने अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री को भी चिंता नहीं की।
इन्होंने सबसे पहले बंधुआ बाल मजदूरों की स्थिति का अध्यन किया, फिर अपने आपको संगठित कर और स्थानीय प्रशासन से सहायता लेकर अवैध बाल श्रमिक केंद्रों पर छापे भी मारे जिसके लिए इन्हें कई धमकियां भी मिलीं। लेकिन बिना अपनी जान की परवाह किये इन्होंने उन बच्चों को मुक्त कराकर उन्हें विस्थापित करना शुरू किया। इनके मुहीम से प्रभावित होकर समाज के कई संगठनों ने आगे बढ़कर इनकी सहायता करनी शुरू की जिसने इन्हें और भी मज़बूती दी।
इनके इस प्रयास को विशेष पहचान मिली इनके "बचपन बचाओ आंदोलन" से, जिसके तहत इन्होंने करीब 90 हज़ार बच्चों को शोषण से मुक्त कर उन्हें बेहतर शिक्षा और जीवनयापन का सुअवसर दिया। बाल अधिकारों के लिए तन्मयता से जूझते मसीहा कैलाश सत्यार्थी के आगे आज पूरा विश्व नतमस्तक है। बाल कल्याण के प्रति इनके इस अथक प्रयास को साल 2014 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
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